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►  विद्यार्थियों का अभिविन्यास एवं दिशा निर्देश

जैविक विज्ञान विद्यालय (एसएलएस) की स्थापना १९७० में प्रोफेसर एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में बने समूह द्वारा बनायी गयी रिपोर्ट के आधार पर की गयी थी। यह विद्यालय आज देश के अनूठी संस्थाओं में से एक है जहां जैविक विज्ञान के बहुमुखी क्षेत्रों एवं अंतर्विषयक शिक्षण एवं शोध ने अपनी स्थायी जड़ें बिछा ली हैं। इस विद्यालय की खासियत इस बात में निहित है कि विद्यालय की फैकल्टी के अंदर नवीनतम जैव विज्ञान के करीब हर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले विशेषज्ञ एवं कार्यशील शोधकर्ता मौजूद हैं। अपनी सम्पूर्णता में जैविक विज्ञान हमारे शोध कार्यक्रमों के काफी बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं।

विद्यालय का मानना है कि स्नातकोत्तर शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए ऐसे शिक्षकों द्वारा शिक्षण करवाया जाना चाहिए जो अपनी महारत के क्षेत्र में शोध कार्यों में लिप्त हों। विद्यालय ने एक शिक्षण कार्यक्रम विकसित किया है जो हर जीवन प्रणाली की आणविक एवं सेलुलर क्रियाविधि के समरूपता सिद्धांत पर ध्यान केंद्रित करता है। विद्यालय ने भौतिक विज्ञान एवं जैविक विज्ञान को एकरूप करने के भी काफी प्रयास किये हैं।

एसएलएस में भौतिक विज्ञान के विद्यार्थियों को जैविक विज्ञान में दाखिला दिया जाता है। जैविक विज्ञान के उपचारात्मक कोर्स भौतिक विज्ञान के विद्यार्थियों से तथा जैविक विज्ञान के विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान एवं गणित के पाठ पढ़ाए जाते हैं। करीब ५० सीटों के लिए विद्यालय हर साल एमएससी एवं एमफिल/पीएचडी कार्यक्रम प्रदान करते हैं। सारे भारत में लिखित परीक्षा एवं साक्षात्कार के माध्यम से चुनाव किये जाते हैं। इस विद्यालय को यूजीसी - कोसिस्ट तथा डीएसए ख़ास सहायता कार्यक्रम के अन्तर्गत मान्यता मिली हुई है। इसके अलावा, यूजीसी विज्ञान के एमफिल/पीएचडी विद्यार्थियों को, जो जेएनयु की राष्ट्रीय प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं, जेआरएफ/एसआरएफ फ़ेलोशिप प्रदान करता है।

शोध एवं गतिविधियां

गुणवत्ता युक्त शिक्षण के लिए शोध की जारी गतिविधियों की आवश्यकता होती है जिसके लिए काफी मात्रा में आर्थिक सहायता की ज़रुरत होती है। वैसे तो जैविक विज्ञान का उच्च गुणवत्ता का प्रशिक्षण प्रदान करना हमारा राष्ट्रीय अनुदेश है, अपनी कुछ बाध्यताओं की वजह से विश्वविद्यालय प्रणाली शोध कार्यक्रमों को थोड़ी सी अंदरूनी सहायता प्रदान करती है।

एसएलएस शोध परियोजनाओं के रूप में राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के माध्यम से शोध राशि लाने के मामले में काफी भाग्यशाली है।

राष्ट्रीय आर्थिक सहायता एजेंसियां जैसे बायो टेक्नोलॉजी विभाग, कौंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च, इंडियन कौंसिल फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च, इंडियन कौंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च, डिपार्टमेंट ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, डिफेन्स एंड आर्डिनेंस डिपार्टमेंट, डिपार्टमेंट ऑफ़ एटॉमिक एनर्जी, डाड आदि, एवं अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां जैसे डब्लूएचओ, युएसडीए, यूरोपियन कमीशन, जर्मन इंडो - फ्रेंच, इंडो - युएस एवं अन्य एजेंसियां भी इस विद्यालय द्वारा किये जाने वाले शोध को प्रोत्साहित करती हैं ।.

विद्यालय ने कई शोध अनुदानों से शोध कार्यों के लिए करीब १७ करोड़ की कुल राशि अर्जित की है । एसएलएस की फैकल्टी द्वारा शोध परियोजनाओं के लिए प्राप्त की गयी आर्थिक सहायता के बिना हमारे लिए हमारे शोध प्रशिक्षण कार्यक्रमों को जारी रख पाना असंभव साबित होता ।

शोध परियोजनाएं ना सिर्फ फैकल्टी के सदस्यों को अपने शोध कार्यक्रमों को जारी रखने में सहायता करती हैं, बल्कि विद्यार्थियों को भी अपनी एमफिल एवं पीएचडी की थीसिस के लिए चुनौतीपूर्ण एवं नवीनतम शोध विषय चुनने के लिए प्रोत्साहित करती है ।.

एसएलएस में प्रशिक्षित विद्यार्थियों की मांग काफी ज़्यादा है ।एसएलएस से पीएचडी की डिग्री प्राप्त करने वाले करीब हर विद्यार्थी को (अब तक करीब २८५) विदेशों में डॉक्टरी के बाद काम करने का मौक़ा मिलता है, एवं इनमें से कई विद्यार्थी देश में काम करने के लिए वापस आते हैं

विद्यालय की फैकल्टी एवं विद्यार्थियों के कार्य नियमित रूप से प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं । आज तक, एसएलएस के नाम से २००० से भी ज़्यादा शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं

एसएलएस की फैकल्टी में तीन भटनागर पुरस्कार से सम्मानित, चार इंडियन नेशनल साइंस अकादमी के फेलो, चार इंडियन अकादमी ऑफ़ साइंसेज के फेलो और छः नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज के फेलो शामिल हैं । भारत की ओर से पहला अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट (एएमएआई) एसएलएस द्वारा ही प्राप्त किया गया था । ऐसे कई और पेटेंट्स भी संभावित हैं, जिनमें ट्यूबरक्लोसिस के एंटीजन्स की पहचान करने का काफी संवेदनशील इम्यूनोडायग्नोस्टिक तरीका शामिल है ।

सह्कार्यिता

क्योंकि एसएलएस के पास ऐसी फैकल्टी है, जिनको नवीनतम जैव विज्ञान के हर मुख्य क्षेत्र की विशेषज्ञता हासिल है, अतः विद्यालय की फैकल्टी को अन्य विश्वविएसएलएस की फैकल्टी में तीन भटनागर पुरस्कार से सम्मानित, चार इंडियन नेशनल साइंस अकादमी के फेलो, चार इंडियन अकादमी ऑफ़ साइंसेज के फेलो और छः नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज के फेलो शामिल हैं । भारत की ओर से पहला अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट (एएमएआई) एसएलएस द्वारा ही प्राप्त किया गया था । ऐसे कई और पेटेंट्स भी संभावित हैं, जिनमें ट्यूबरक्लोसिस के एंटीजन्स की पहचान करने का काफी संवेदनशील इम्यूनोडायग्नोस्टिक तरीका शामिल है ।द्यालयों में भी शिक्षण करने के लिए बुलाया जाता है

विद्यालय ने अन्य विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्यक्रमों के विकास एवं रिफ्रेशर कोर्सों के आयोजन के लिए सहायता भी प्रदान की है

विद्यालय की फैकल्टी यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन/कौंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर), आरए, जेआरएफ एवं पूल अफसरों के लिए नेशनल टेस्टिंग फॉर नेट एग्जामिनेशन्स/रिसर्च फ़ेलोशिप्स में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है

हमारे फैकल्टी के सदस्य कई तरह की राष्ट्रीय समितियों एवं टास्क फ़ोर्स के लिए भी कार्य करते हैं । एसएलएस के दो फैकल्टी सदस्य (प्रोफेसर पी। एन श्रीवास्तव एवं प्रोफेसर असीस दत्ता) विश्वविद्यालय के उप कुलाधिपति के पद पर मौजूद हैं एवं एक ने (प्रोफेसर पी। एन श्रीवास्तव) इंडियन नेशनल साइंस कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया है ।यह विद्यालय सरकारी एजेंसियों जैसे यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन, डिपार्टमेंट ऑफ़ बायो टेक्नोलॉजी, डिपार्टमेंट ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, इंडियन कौंसिल फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च, इंडियन कौंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च, सीएसआईआर, यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन (युपीएससी), नेशनल कौंसिल फॉर एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीइआरटी) एवं अन्य के लिए विशेषज्ञों के दल की भी व्यवस्था करता है

फैकल्टी के कुछ सदस्यों ने योजना आयोग, स्वास्थ्य, शिक्षा एवं बायोटेक्नोलॉजी के कार्यकारी समूह में कार्य किया है एवं राज्य कौंसिल के सदस्य भी रहे हैं ।यह विद्यालय अन्य राज्य विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों, शिक्षकों एवं शोधकर्ताओं को सीआईएफ की सुविधा प्रयोग करने का मौक़ा देकर उन्हें शोध के लिए सहायता प्रदान करता है । अतः यह विद्यालय भारत की मुख्य वैज्ञानिक एवं शैक्षणिक गतिविधियों के मुख्य स्त्रोत के रूप में काम करता है और राष्ट्र के लिए कार्य जारी रखने को लेकर दृढ़ प्रतिज्ञ है

विद्यालय का देश के अन्य विश्वविद्यालयों जैसे न्यूक्लियर साइंस सेण्टर (एनएससी), नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ इम्युनोलोजी (एनआईआई), आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज (एम्स), सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी, टाटा इंस्टिट्यूट फॉर फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर), इंस्टिट्यूट फॉर न्यूक्लियर मेडिसिन एंड एप्लाइड साइंसेज (इनमास), भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (बार्क), इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी (आईसीजीइबी) एवं अन्य विश्वविद्यालयों के साथ शोध आधारित जुड़ाव है । यह विद्यालय सीसीएमबी, हैदराबाद एवं एनआईआई, नयी दिल्ली के लिए नोडल सम्बद्ध केंद्र भी है । फैकल्टी के ज़्यादातर सदस्यों के जर्मनी, फ्रांस, रूस, पोलैंड, अमेरिका, इजराइल के विश्वविद्यालयों एवं अन्य कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ सह्कार्यिता कार्य चल रहे हैं ।.

A warm welcome to the modified and updated website of the Centre for East Asian Studies. The East Asian region has been at the forefront of several path-breaking changes since 1970s beginning with the redefining the development architecture with its State-led development model besides emerging as a major region in the global politics and a key hub of the sophisticated technologies. The Centre is one of the thirteen Centres of the School of International Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi that provides a holistic understanding of the region.

Initially, established as a Centre for Chinese and Japanese Studies, it subsequently grew to include Korean Studies as well. At present there are eight faculty members in the Centre. Several distinguished faculty who have now retired include the late Prof. Gargi Dutt, Prof. P.A.N. Murthy, Prof. G.P. Deshpande, Dr. Nranarayan Das, Prof. R.R. Krishnan and Prof. K.V. Kesavan. Besides, Dr. Madhu Bhalla served at the Centre in Chinese Studies Programme during 1994-2006. In addition, Ms. Kamlesh Jain and Dr. M. M. Kunju served the Centre as the Documentation Officers in Chinese and Japanese Studies respectively.

The academic curriculum covers both modern and contemporary facets of East Asia as each scholar specializes in an area of his/her interest in the region. The integrated course involves two semesters of classes at the M. Phil programme and a dissertation for the M. Phil and a thesis for Ph. D programme respectively. The central objective is to impart an interdisciplinary knowledge and understanding of history, foreign policy, government and politics, society and culture and political economy of the respective areas. Students can explore new and emerging themes such as East Asian regionalism, the evolving East Asian Community, the rise of China, resurgence of Japan and the prospects for reunification of the Korean peninsula. Additionally, the Centre lays great emphasis on the building of language skills. The background of scholars includes mostly from the social science disciplines; History, Political Science, Economics, Sociology, International Relations and language.

Several students of the centre have been recipients of prestigious research fellowships awarded by Japan Foundation, Mombusho (Ministry of Education, Government of Japan), Saburo Okita Memorial Fellowship, Nippon Foundation, Korea Foundation, Nehru Memorial Fellowship, and Fellowship from the Chinese and Taiwanese Governments. Besides, students from Japan receive fellowship from the Indian Council of Cultural Relations.